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बेटा / शशि सहगल
Kavita Kosh से
कोख का सुख
लोक का सुख
परलोक का संभावित सुख
सभी कुछ पाया
जब बेटा जना मैंने
आशीषों की वर्षा से
भीग उठी मैं
बेटा पा जी उठी मैं।
बीतता रहा समय
बदलते गये कैलेण्डर
और आज जब
बाप का जूता पहना है उसने
उद्विग्न सी घूम रही हूँ मैं
खुश होने के बजाय
सहम गई हूँ, उसका बदलाव देखकर
क्यों अपरिचित हो गया है वह
किसने छीन ली है उसकी छुअन मुझसे
समय ने!
पूछती हूँ एक सवाल आपसे
बेटा बड़ा हो कर
आदमी क्यों बन जाता है?