भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेटियाँ, बेटियाँ, बेटियाँ / रवीन्द्र प्रभात
Kavita Kosh से
बेटियाँ, बेटियाँ, बेटियाँ
बन रही तल्ख़ियाँ, बेटियाँ।
सुन के अभ्यस्त होती रही,
रात-दिन गालियाँ, बेटियाँ।
सच तो ये है कि तंदूर में,
जल रही रोटियाँ, बेटियाँ।
घूमती है बला रात-भर,
बंद कर खिड़कियाँ,बेटियाँ।
कौन कान्हा बचाएगा अब,
लग रही बोलियाँ, बेटियाँ।