भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेटियाँ / किरण मल्होत्रा
Kavita Kosh से
बेटियाँ
मन का वह
कोमल हिस्सा होती
जहाँ असहनीय होता
कुछ भी सहना
जरा सी वेदना
रूलाती ज़ार-ज़ार
विश्व सम्राट पिता को
बेटियों के
प्रेम में बंधा मन
करता व्याकुल
हो जाता जैसे
पल में पराजित
सुलगता
मंदिर की धूनी-सा
जब देखता
खिली धूप-सी
बेटी की
ठहरी सूनी आँखें