बेटी और माँ के चंदन की मिसरी / दयानन्द पाण्डेय
जीवन के मोड़ का यह भी अजब मंज़र पेश है
कि बेटी मां बन जाती है, और मां नन्ही-मुन्नी बच्ची
बेटी मां की तरह ज़िम्मेदारियां निभाने लगती है
बात-बात में संभालने, समझाने और दुलराने लगती है
और मां नन्ही बच्ची की तरह ज़िद करने लगती है
बात-बात में रूठने-रिसियाने और कुम्हलाने लगती है
मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों ! की ज़िद और मनोविज्ञान में जीने लगती है
एक व्यक्ति का मां का बेटा होना और बेटी का पिता होना
ज़िंदगी को चंदन-चंदन कर देता है
जैसे ज़िंदगी के नंदन वन में एक नई सुगंध सृजित कर देता है
बो देता है एक अनिर्वचनीय ख़ुशी, एक अद्भुत सुगंध
हर्ष के इस अनुभव में तर-बतर व्यक्ति को
तटस्थ हो कर देखती, बुद्ध बन कर सहेजती
पत्नी बन जाती है धागा, पिरो देती है माला-दर-माला
ज़िंदगी में चंदन की यह सुगंध जैसे सुख बन कर पसर जाती है
सुख की यह सीढ़ी लेकिन सब के नसीब में नहीं होती
ममत्व, वात्सल्य, स्नेह और प्रेम की यह अनमोल डोर
ऐसी शिशुवत मां और ऐसे वात्सल्य में डुबोती ममत्व से भरी बेटी
एक साथ भला कहां और किस को मिलती है
सब को कहां मिलती है
दुर्लभ है यह अविरल संयोग भी
जीवन की यह अनूठी तसवीर भी
याद आता है बचपन में खेला गया सांप और सीढ़ी का खेल
जीवन के नंदन वन में भी, इस मोड़ पर
चंदन बन कर इस तरह
याद आएगा यह खेल और अपने को दुहराएगा
कौन जानता था भला
कि मां जैसे मुझे, मेरे शिशु को जी रही हो और बेटी मेरी मां को
जीवन जैसे कोई झूला हो, कभी नीचे, कभी ऊपर जाता हुआ
कभी धरती, कभी आकाश को छूता हुआ
मां के ए बाबू ! गुहराने और बेटी के पापा ! बोलने में
लय और लास्य का बोध तो एक ही है
मिठास तो एक ही है
मिसरी तो फूटती है, फूल तो खिलता है
दोनों ही संबोधन से
मन में चंदन की सुगंध और उस की शीतलता
जैसे पसर कर बस जाती है
बेटी का मां बन कर दुलराना, समझाना और संभालना
और मां का नन्ही बच्ची बन कर, रह-रह कर रूठना-रिसियाना
कुम्हड़े की किसी बतिया की तरह बात-बेबात कुम्हलाना
जीवन की सारी खदबदाहट, सारी खिसियाहट धो देता है
बेटी और मां के प्यार, दुलार और मनुहार में घिसे
इस चंदन की सुगंध में घुली मिसरी
और-और मीठी होती जाती है
[22 फ़रवरी, 2015]