बेटी / विमल राजस्थानी
डोली जल्दी उठा, न कर तू देर अरे कहार !
सावन बन कर कहीं न बह जाये रेशमी बहार
रोते-रोते लाल हो गये
काजर कारे नैन
हिचकी भर-भर साँसें फूलीं
रूँधे सुरीले बैन
अलग पिता ने किया वक्ष से
अपने जैसे-तैसे
बाँहों में भर लिया जननि ने,
अलग करे तो कैसे
आँखों से गंगा, स्तन से बहे दूध की धार
डोली जल्दी उठा, न कर तू देरी अरे कहार !
बहना सिसके, भइया बिलखे
सुबकें प्यारी सखियाँ
टोला और मुहल्ला रोये
बरसें क्वाँरी अँखियाँ
रोम-रोम रोये गलियों का,
सूना आँगन सिसके
लाली लगे चरण दो क्वाँरे
चूमेगा अब किसके
घिसी देहरी सुबक कराहे, उठा सिन्धु में ज्वार
डोली जल्दी उठा, न कर तू देरी अरे कहार !
बेटी होती सदा परायी
विवश पराया धन है
बेटे पवि-प्रस्तर जैसे हैं
बेटी एक सुमन है
बाँधो उसे वधिक के खूँटे
गाय सदृश राँभेगी
श्वसुर गे की चौखट उसकी
अर्थी ही लाँघेगी
सुनकर कष्ट पिता-माता का
भीतर तक भींगेगी
करवट बदल-बदल आँखों में कर देगी भिनसार
डोली जल्दी उठा, न कर तू देरी ओ कहार !
उसे फूल से भी मत मारो
बेटा कहकर सदा उचारो
सेवा लेनी है तो उसपर
ही अपना तन-मन-धन वारो
नैहर की ही नहीं, श्वसुर-गृह का भी है श्रृंगार
डोली जल्दी उठा, न कर तू देरी अरे कहार !