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बेतवा के किनारे / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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सुन रहा हूँ बेतवा के गगनभेदी घोष
जैसे बज रहा रण-ढोल;
अथवा वेग से उठ कर बवण्डर
घहर-हर-हर-
फूँकता जाता समुद्री शंख पूर ज़ोर से।
कज्जल घटाटोप मतंग
घन के विवर में दुर्गम्य
बिजली कड़कती हुंकार होकर वन्दिनी है!
ठनका इन्द्र का है वज्र
कम्पित तुंगकाय अखण्ड भूधर-खण्ड
पृथिवी और अम्बर पोल!

देखता हूँ बेतवा की धार,
मानव-हीन, निर्जन कूल का विस्तार।
खिलखिलाती हवा जाती खड़खड़ाती झाड़,
सनसनाती, और भरती प्राण में गुंजान!

तट पर खड़े दोनों ओर
बाँध क़तार;
स्वागत के लिए तैयार
धीमे ढोलते हैं चँवर,
अर्जुन, करधई, सागौन
सेमल, महानीम, चिरौल।
आकुल बेतवा की धार,
छालों-वल्कलों के वसन
रंगों के लहरिया पहन;
जाती फोड़ती पाताल,
जंगल, झाड़ियाँ, झंखाड़
लम्बे शाल-वृक्ष उखाड़।
पेड़ों के तनों से जूझ,
खाती चोट पर है चोट।

निकली एक से दो;
और दो से तीन;
होकर तीन से भी चार
फिर सब एक में ही बदल जाती;
छिन्न करती जल-विभाजक, शृंखला को
शीघ्र बनती एक चौड़ी धार।
ज्यों-ज्यों धार का विस्तार बढ़ता
शक्ति बढ़ती और उसका वेग;
स्वच्छ करती भूमि-तल को
बहा ले जाकर निरन्तर,
रेत, मिट्टी, गाद।

बढ़ती जा रही कर द्रोह
कारा तोड़,
भूखी सिंहनी है!
नीचे कंकड़ों की सेज
ऊपर ओढ़ना आकाश;
फैली सामने चट्टान
काँटे, फल-वन, मैदान।
खाई नाश की अतलान्त
नाले गहन और अगम्य;
लपलपाती रौद्र जिह्वा दाढ़ में दुर्दान्त,
नाचती, भरती छलाँगे अरुक गति से;
पार करती देश, पुर, पर्वत, गुहा औ’ ग्राम।
जा रही चलती, चली ही जा रही बहती
लहर के भँवर पर उत्तुंग;
उठते चरण पड़ते कहाँ
इसका नहीं उसको भान।

हृदय का अपने निरन्तर दान देकर
चाहती है बेतवा स्तिीर्ण करना मार्ग अपना;
चाहती है मार्ग निश्चित
और अपनी शक्ति का निर्माण!
पथ प्रगति का है विषम संघर्ष में होकर
इसी में छिपा है उत्कर्ष जीवन का;
इसी में छिपा जीवन-सूत्र
आकुल प्राण आह्लाद
रुके रह कर प्राप्ति का है यत्न करना मृत्यु
चमक उठती दिव्यता से आत्मा है;
जगत को सर्वस्व देकर!
चाहता है जो न निज को दान करना,
जो न अपने को लुटाना जानता है?
जर्जरित वह मृत्तिका का पिण्ड; जीवन-शून्य!

(रचना-काल: अगस्त, 1948। ‘नया समाज’, अक्तूबर, 1948 में प्रकाशित।)