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बेदिनी में चांद / कुमार मुकुल
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ठिठुरती उजाड़ होती रात में
जब सुनागरिक सोने की तैयारी कर रहे होंगे
जीवन की डोर थामे खड़े हैं वृक्ष
चांद है कि इस डोर को हौले-हौले डुला रहा है
भूखा जैसे भोजन के सपने से गुज़र रहा हो
या नामालूम-सा कोई व्यक्ति
किसी की मीठी निगाह से
अपनी इस बेदिनी में मैं भी
चांदनी के ख़्वाबहगाह से गुजर रहा हूं
इस बड़े मैदान में
जहाँ शाम तक लड़के खेल रहे होंगे
कुहासे में भीगे मिट्टी के टीलों से
अभी चांदनी खेल रही है।