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बेनाम / माधवी शर्मा गुलेरी

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कोई-कोई दिन कितना
अलसाया हुआ होता है
सुस्त, निठल्ला
नाकाम-सा

लेकिन मैं
कुछ न करते हुए भी
काम कर रही होती हूँ

जैसे बिस्तर पर लेटे
करवटें बदलना
कई सौ बार

यादों की पैरहन उधेड़कर
सिल लेना उसमें
ख़ुद को

अरसा पुराने ख़्वाबों को
नए डिज़ाइन में
बुनने की कोशिश करना

फैंटेसी-फ्लाइट में
बिना सीट-बैल्ट के बैठना
हिचकोले खाना जमकर
टाइम-अप के डर से
फिर नीचे उतर आना

ज़हन में कुलबुलाते
उच्छृंखल विचारों पर
नक़ेल डालना ताकि
सब-कुछ बना रहे
ऐसा ही... ख़ूबसूरत

बहुत सारे काम बाक़ी हैं
और आंखें उनींदी हो चली हैं
शाम का धुँधलका भी
छा गया है बाहर ।