संसद तक में पहुँच गए हैं
धौंस जमाने वाले।
धुनते होंगे शीश, देश पर-
सिर कटवाने वाले।।
हल्ला-गुल्ला, भद्दी भाषा
बेशर्मी बातों में
कुछ रखवाले जुटे हुए हैं।
षड्यन्त्रों-घातों में।।
बहुत चीखते हैं मंचों पर
लूट मचाने वाले।।
जनता बेबस देख रही है
सारा खेल, तमाशा।
छले जाने की पीड़ा से
बढ़ गई और निराशा।
सर्वनाश का खेल खेलते
देश बचाने वाले।
एक अकेला भला आदमी
हो गया है हैरान।
पग-पग बढ़ते अँधियारे का
क्या नहीं अब अवसान।
जनता की गर्दन पर बैठे
छुरा चलाने वाले।। ङ
(2-8-98: सवेरा संकेत दीपावली विशे-98)