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बेमौसम की उदासी / रश्मि रेखा
Kavita Kosh से
फिर वही बेमौसम की उदासी
पेड़ों के लम्बे-लम्बे साये
डूबता हुआ सूरज
थके क़दमों से लौटते हुए लोग
अनमनी सी चाय बनाती हुई मैं
और साँझ के साथ गहराती तुम्हारी यादें
यादें इतनी चुभती क्यों है
जब कि एसा कुछ भी नहीं है
पर उस दिन
बेगम अख्तर की गई उस गज़ल पर
तुम इतने ख़ामोश क्यों हो गए थे
और मैं इतनी असहज
क़िस्तो में बँटी मुलाकातें
स्मृतिओं बंद में ठहाके
बेसिर-पैर की बहसें
दुनिया-जहाँन की बाते
और सिर्फ़ बातें
हमारे अकेलेपन ने जिसमे गहरे डूब कर
कविता के अर्थ सा खोला है
इन्हें पकड़ नहीं पाता मेरा शब्दकोश
चिड़ियों की तरह उड़ जाते है शब्द
और रह जाती हूँ मैं
उस तार सी काँपती
थोड़ी देर पहले जिस पर बैठी
वे चहचहा रही थीं