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बेर / अम्बर रंजना पाण्डेय
Kavita Kosh से
मर्कट-दल उत्पात मचा कर
अभी अभी गया हैं ।
बदरी का बेचारा बालक वृक्ष इसी बरस तो
फला था ।
हरे-हरे बेर टूंग-टूंग कर
फेंक गए वानर ।
तुम दुखी मत हों बदरी गाछ ।
जानता हूँ गौधूलि
लौटती बेर असंख्य शुकों का झुण्ड
विश्राम पाता था तुमपर जरा अबेर ।
पियराते बेरों के लिए ललचाता किन्तु अगली
ऋतु और भी फलोगे तुम ।
अरुण-पिंगल फूलों से झोल खा जाएँगी
डगालियाँ ।
निराश होना ठीक नहीं यों ।
बीत जाने दो शीत-काल, पड़ जाने दो तुषार ।
वसंत आते ही
फुनगियों फूल जाएँगे लजीले फूल हज़ार ।