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बेला विदाई की / ऋता शेखर 'मधु'

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गोरी सजी दुल्हन बनी है, नैन शर्मीले बने।
लाली हया की छा रही है, हाथ बर्फीले बने॥
जाना सजन के संग में है, यह विदा की रात है।
इन थरथराते से लबों पर, अनकही इक बात है।

बाबुल नज़र के सामने हैं, नत नयन बिटिया खड़ी।
जाना ज़रूरी क्यों बताओ, कौन-सी आई घड़ी॥
लाडो नियम संसार का यह, अब वही तेरा जहाँ।
माता-पिता की लाज रखना, प्रेम से रहना वहाँ।

भाई कलाई सामने रख, भाव-विह्वल हो रहा।
मुख यों उदासी से भरी हैं, ज्यों लगे कुछ खो रहा॥
वह ले रहा है एक वादा, आँख में लेकर नमी।
प्यारी बहन हर साल आना, डोर लेकर रेशमी॥

माँ के कलेजे से लगी है, लाडली नाजों पली।
कैसे रहेगी दूर माँ से, सोचती नाज़ुक कली॥
क्यों छूटता बचपन सुहाना, छोड़ मैके की गली।
ससुराल में वह भी ढलेगी, ज्यों कभी माँ थी ढली॥

देता दिलासा 'वर' सभी को, मीत को लेकर चला।
शोभा बनेगी यह हमारी, आस भी देकर चला॥
हौले दबाया हाथ 'उसका' , लाज से पानी हुई।
ले प्यार सबका वह चली है, प्रीत दीवानी हुई॥