भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेवजह आँख भर गयी फिर से / आनंद कुमार द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जुस्तजू सी उभर गयी फिर से
शाम भी कुछ निखर गयी फिर से

तेरा पैगाम दे गया कासिद
जैसे धड़कन ठहर गयी फिर से

तेरी बातों की बात ही क्या है
कोई खुशबू बिखर गयी फिर से

जिंदगी! होश में भी है, या कहीं
मयकदे से गुज़र गयी फिर से ?

रात इतनी वफ़ा मिली मुझको
जैसे तैसे सहर हुयी फिर से

वो तो बेमौत ही मरा होगा
जिस पे तेरी नज़र गयी फिर से

तेरा दीदार मिले तो समझूं
कैसे किस्मत संवर गयी फिर से

कहके ‘आनंद’ पुकारा किसने
बेवजह आँख भर गयी फिर से