बेसुरा बेस्वाद / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
लौटती हूँ जब भी
एक कोल्हू को छोड़कर
दूसरे कोल्हू में
अकसर झेलती हूँ प्रश्न
कहो, कैसी रही यात्रा?
धरा घूमती है अपने पथ पर
क्यो कोई यात्रा होती है?
क्या महसूसती है मौसम?
या नजर का फरेब है
वही रोज की सीढ़ियाँ
वही उड़ते पन्ने
धूप सेंकते ठिठुरते चेहरे
खोमचों पर खड़ी मक्खियाँ
शाम ढलते ही
चल देते हैं बैग, स्कूटर, गाड़ियाँ
कोई हँसी नहीं
कोई आह्लाद नहीं
पक चुकी हैं संवेदनाएँ
इन बेसुरे दिनों से
थक चुकी हैं भावनाएँ
इन बेस्वाद रातों से
क्या परिपक्व होना होता है
मृत्यु के लिए?
फिर बनना बीज
बनना वृक्ष दोबारा
यही है बस यात्रा
जाना और लौटना
लौट के फिर जाना
कोई विश्राम नहीं
ये घड़ी की टिक-टिक कब रुकेगी?
ये धरा अपने पथ से कब गिरेगी?
ताकि कोई और नया आलाप हो
ताकि असाध्य वीणा सध सके।