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बेहद बेचैनी है लेकिन मक़सद ज़ाहिर कुछ भी नहीं / दीप्ति मिश्र

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बेहद बेचैनी है लेकिन मक़सद ज़ाहिर कुछ भी नहीं
पाना-खोना, हँसना-रोना क्या है आख़िर कुछ भी नहीं

अपनी-अपनी क़िस्मत सबकी, अपना-अपना हिस्सा है
जिस्म की ख़ातिर लाखों सामाँ, रूह की ख़ातिर कुछ भी नहीं

उसकी बाज़ी, उसके मोहरे, उसकी चालें, उसकी जीत
उसके आगे सारे क़ादिर, माहिर, शातिर कुछ भी नहीं

उसका होना या ना होना, ख़ुद में ज़ाहिर होता है
गर वो है तो भीतर ही है वरना बज़ाहिर कुछ भी नहीं

दुनिया से जो पाया उसने, दुनिया ही को सौंप दिया
ग़ज़लें-नज्में दुनिया की हैं क्या है शाइर कुछ भी नहीं