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बे-ख़्वाब दरीचों में किसी रंग-महल के / ख़ुर्शीद अहमद 'जामी'

बे-ख़्वाब दरीचों में किसी रंग-महल के
फ़ानूस जलाए हैं उम्मीदों ने ग़ज़ल के

यादों के दरख़्तों की हसीं छाँव में जैसे
आता है कोई शख़्स बहुत दूर से चल के

दुख दर्द के जलते हुए आँगन में खड़ा हूँ
अब किस के लिए ख़ल्वत-ए-जानाँ से निकल के

सोचूँ में दबे पाँव चले आते हैं अक्सर
बिछड़ी हुई कुछ साँवली शामों के धुंदलके