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बे-चैन जो रखती हैं तुम्हें चाह किसू की / मोहम्मद रफ़ी 'सौदा'
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बे-चैन जो रखती हैं तुम्हें चाह किसू की
शायद कि हुई कार-गर अब आह किसू की
उस चश्म का ग़म्ज़ा जो करे क़त्ल-ए-दो-आलम
गोशे को निगह के नहीं परवाह किसू की
ज़ुल्फ़ों की सियाही में कुछ इक दाम थे अपने
क़िस्मत कि हुई रात वो तनख़्वाह किसू की
क्या मसरफ़-ए-बेजा से फ़लक को है सरोकार
वो शय किसू को दे जो हो दिल-ख़्वाह किसू की
दुनिया से गुज़रना ही अजब कुछ है कि जिस में
कोई न कभू रोक सके राह किसू की
छीने से ग़म-ए-इश्क़ शकेबाई ओ आराम
ऐ दिल ये पड़ी लुटती है बुंगाह किसू की