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बे-मंज़र इस दुनिया को इक मंज़र दे / कृश्न कुमार 'तूर'
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बे-मंज़र इस दुनिया को इक मंज़र दे
देनी है कोई निशानी तू मेरा सर दे
दे शादाबी दिल से निकली दुआओं को
बंद सदफ़-सी इस मुठ्ठी को गोहर दे
भर दे मेरा आँगन धूप से बच्चों की
और साया माँ-बाप का सर के ऊपर दे
कोई संदेसा आसमान से उतरे तेरा
मेरे बाम को इक उजला-सा कबूतर दे
प्यार की इक इक बूँद को मैं तरसा हूँ बहुत
अब तो मेरी ख़ाली गागर को सागर दे
ये दुनिया नैरंगे-मोजिज़ा ढूँढती है
मेरे हाथों में दस्ते-पैग़म्बर दे
फिर से जोत जगा ‘तूर’ उनकी आँखों में
फिर से लहू की धार को इक मुश्ते-पर दे