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बे-सबब तो नहीं ये अंधेरा / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

 
बे-सबब तो नहीं ये अंधेरा
इस से फूटेगा आखिर सवेरा

ऊंचा उठना जो चाहो जहां में
ऊँची शाख़ों पे करना बसेरा

मत ज़माने से कुछ आस रखना
ये जहां है न तेरा न मेरा

सुब्ह से शाम तक काम ये है
उन की गलियों में फेरे ओए फेरा

रौशनी लुप्त होने लगी है
फैलता जा रहा है अंधेरा।