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बे ठिकाने है दिले-ग़मगीं ठिकाने की कहो / फ़िराक़ गोरखपुरी

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बे-ठिकाने है दिले-ग़मगीं ठिकाने की कहो
शामे-हिज्राँ<ref>विरह की शाम</ref> , दोस्तो, कुछ उसके आने की कहो।

हाँ न पूछो इक गिरफ़्तारे-कफ़स <ref>पिंजरे में क़ैद</ref> की ज़िन्दगी
हमसफ़ीराने-चमन<ref> चमन के साथी</ref>कुछ आशियाने की कहो

उड़ गया है मंजिले-दुशवार से ग़म का समन्द <ref> घोड़ा</ref>
गेसू-ए-पुर पेचो-ख़म के ताज़याने <ref>कोड़ा</ref> की कहो।

बात बनती और बातों से नज़र आती नहीं
उस निगाहे-नाज़ के बातें बनाने की कहो।

दास्ताँ वो थी जिसे दिल बुझते-बुझते कह गया
शम्‍ए - बज़्मे - ज़िन्दगी के झिलमिलाने की कहो।

कुछ दिले-मरहूम<ref>मरा हुआ दिल </ref> बातें करो, ऐ अहले-ग़म
जिससे वीराने थे आबाद, उस दिवाने की कहो।

दास्ताने - ज़िन्दगी भी किस तरह दिलचस्प है
जो अज़ल<ref>सृष्टि के प्रारम्भ से </ref> से छिड़ गया है उस फ़साने की कहो।

ये फ़ुसूने - नीमशब <ref>आधी रात का जादू</ref> ये ख़्वाब-सामाँ ख़ामुशी
सामरी फ़न आँख के जादू जगाने की कहो।

कोई क्या खायेगा यूँ सच्ची क़सम, झूठी क़सम
उस निगाहे-नाज़ के सौगन्द खाने की कहो।

शाम से ही गोश-बर आवाज़ <ref>आवाज़ पर कान लगाए हुए </ref> है बज़्मे-सुख़न
कुछ फ़िराक़ अपनी सुनाओ कुछ ज़माने की कहो।


शब्दार्थ
<references/>