बैंक में हम थे, हवा न थी / आर. चेतनक्रांति
बैंक में हम थे, हवा न थी
हम साँसों की बची बासी हवा में साँसें लेकर
अर्थव्यवस्था में ज़िन्दा थे
ज़िन्दा थे इस ख़याल से भी कि हम बैंक में हैं
और इससे भी कि देखो तो कितने होंगे जो बैंक में नहीं होते
हम विकासलीला की हत्शीला भूमि के बैंक में थे
बैंक में हवा न थी, पैसे थे
जैसे जंगल में हवा दिखती नहीं
पर ज़िन्दा रखती है
ऐसे ही बैंक में पैसे
दिखते नहीं, पर ज़िन्दा रखते हैं
लेकिन हवा अपने जीवितों को गुस्सा नहीं देती
पैसे अपने जीवितों को गुस्सा देते हैं
बैंक में हवा न थी, गुस्सा था
जिनकी पासबुक में पैसे ज़्यादा थे
उनका गुस्सा था
जिनकी पासबुक में कम थे
उनके ऊपर गुस्सा था
उनके ऊपर बैंक के कम्प्यूटरों का भी गुस्सा था
वे ढों की आवाज के साथ चिड़चिड़ाकर हँसते थे
बैंक में हवा न थी, कम्प्यूटर थे
और हर कम्प्यूटर के साथ
कॉर्बन कॉपी की तरह नत्थी एक क्लर्क था
जिनकी पासबुक भारी थी
उन्हें देख वह भी रिरियाता था
जिनकी हल्की थी, उन्हें गरियाता था
बैंक में हवा न थी, समाज था
समाज अपनी आदतों में कतई सहनशील न था
वह हिकारत से देखता था
और देख लिये जाने पर पूँछ दबाकर कुँकुआता था
वह घर से योजना बनाकर अगर चलता था
तो ही विनम्र हो पाता था
अन्यथा इनसानियत के कैसे भी कुदृश्य पर
सुतून-सा खड़ा रह जाता था
बैंक में हवा न थी, सुतून थे
कदम-कदम पर तने खड़े
कि जैसे गिलट के सिक्के चिन दिए गए हों
एक खिड़की थी
जिसके पीछे हवा जोर मार रही थी
और आगे दो खातेदार हिजड़े
खड़े हवा के लिए लहरा-बल खा रहे थे
बैंक में हवा न थी
पौरुष से अकड़े सैकड़ों सुतून
और नपुंसकता के खाते पर पानी-पानी होते
दो हिजड़े थे,
जब मैं पहुँचा,
वे भी जा रहे थे।