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बैगनी रंग का बैगन / अशोक शाह

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सँजोकर दिल में समस्त बीज
ओढ़े समय का आँचल सतरंगी
उतर आयी धरती अंतरिक्ष में
एक ब्याही पुत्री की तरह फिर लौटकर
गयी नहीं पिता के घर
एक संसार चलाती है जिसमें नहीं
कोई नाम, भेद-विभेद

पृथ्वी पर रहते हुए मैं सोचता हूँ
उस जगह क्या होता है
जहाँ ‘कुछ नहीं’ होता
जहाँ नदी झरने समुद्र नहीं होते
क्या वहाँ उछलती हैं मछलियाँ
समय के विविक्त पलों की तरह ?

और जहाँ नदियाँ नहीं होतीं
क्या होती है जीवन की परम्परा
उस संस्कृति के पाप-पुण्य
जिसमें नहाकर मिटता है पाप
और बढ़ता पुण्य ?

तो जहाँ कुछ नहीं होता
वहाँ कुछ होता है ?
जैसे कि जिन चीज़ों के नाम मनुष्यों ने नहीं रखा
वे चीज़ें भी होती हैं
मनुष्य की मस्तिष्कीय पहुँच से बाहर

पाप-पुण्य, झूठ-सत्य धरती पर
मनुष्य के जीने की सीमाएँ हैं
पर सीमाएँ पावन नहीं होतीं
धरती में कितने बीज हैं और कितने शृंगाल
जाना नहीं जा सकता फिलहाल
किस बीज के प्रस्फुटित होने का समय
कब आएगा यह धरती भी नहीं जानती

अभिराम है धरती के रहस्य का विस्तार
इसलिए सूरज भी करता बेइंतिहा प्यार
अवनी के गात को रहता गुदगुदाता
उछालकर अनगिनत नीले फोटोन्स
उगाता कभी कोदो कभी टमाटर धान
फिर बटोरता मेहनत के फोटोन्स लाल ताकि घूमती रहे धरती सुकूनवत

एक माँ के बिना
की जा सकती है कल्पना पुत्र के होने की ?
मनुष्यों की कोई भी भाषा इतनी सक्षम नहीं कि कर सके व्याख्या
मिट्टी होकर तब्दील किस प्रकार बन जाती है
बैगनी रंग का बैगन
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