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बैठ अकेला अन्तर्मन / छाया त्रिपाठी ओझा

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बैठ अकेला अन्तर्मन ये
अक्सर सोचा करता है।

प्रेमबेल चाहे अनचाहे
दिन प्रतिदिन क्यों बढ़ती है ?
देव बनाकर अपने हिय में
चित्र हजारों गढ़ती हैं
प्रिय का मोहक रूप भला वह
दुख कैसे सब हरता है।
बैठ अकेला अन्तर्मन ये
अक्सर सोचा करता है।

रंग बिरंगे पंछी आंगन
आकर खूब चहकते हैं
किस्म-किस्म के फूल हृदय में
क्योंकर खूब महकते हैं
सोच किसी को क्यों कैसे बस
गंध हृदय में भरता है।
बैठ अकेला अन्तर्मन ये
अक्सर सोचा करता है।

घंटों समय बिताता है क्यों
बैठ सामने दर्पण के
खोज-खोज क्यों पढ़े कहानी
निश्छल नेह समर्पण के
और किसी पर कैसे यह मन
बिना स्वार्थ के मरता है।
बैठ अकेला अन्तर्मन ये
अक्सर सोचा करता है।

बात-बात पर इन नयनों में
आखिर आंसू आते क्यों ?
दुख-विषाद पलकों पर सारे
लेकर सदा उठाते क्यों ?
भीड़ भरी दुनिया में उसको
खोने से क्यों डरता है।
बैठ अकेला अन्तर्मन ये
अक्सर सोचा करता है।