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बैठ के पहरों सोचोगे / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
कल भी किसको देखा था, यह वो तो नहीं हैं, पूछोगे
हमसे मिलकर फिर जो मिलोगे, बैठ के पहरों सोचोगे
उम्र-रसीदां* नन्हें बच्चों! अब तो घरों को लौट चलो
गहरे साकित पानी में तुम कब तक पत्थर फेंकोगे
पास है जो कुछ भेंट चढ़ा दो मन की आग न बुझने दो
अगले बरस जब बर्फ़ गिरेगी, बैठे राख कुरेदोगे
रात हुई, पर मन की हलचल यारों! अब भी शांत नहीं
बाजारों की शोर मचाती भीड़ में कब तक घूमोगे
गर्दे-गुमाँ में ढल जाओगे, आखिर वो दिन आएगा
रात में जब भी आँख खुलेगी अपना जिस्म टटोलोगे
1-उम्र-रसीदाँ--वृद्धावस्था