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बैरागी धुन और मन मजीठा / विमलेश शर्मा
Kavita Kosh से
आँखों ने पलाश के प्याले बन
सदियों तक सज़दा किया था
किसी कुदीठ चौखट पर!
मन काफ़िर था
और श्वास के मनके पर
तुम ठिठके थे!
धत्त! जाने कौन सुघटी थी जब
किसी वंशीनाद को सुन बौरायी थी
यमुना प्रवाह में
पैर डाल कर
देर तलक बैठी रही!
कदम्ब की परछाईं को देखती रही
जो टिकी थी तुम्हारी ही ध्वनि पर!
तब से अब तक
बोलती आँखों में छंद की मानिंद
बिखरे हैं कई परिप्रश्न
एक चुप पड़ी है होठों पर सदियों से
जाने कौन ताला,
जाने कौन चाबी,
जाने कौन घड़ी थी
जहाँ ठहर गए थे निर्द्वन्द्व होकर
बौराए से कुछ कोमल
शब्द!