बैल नही हो सकता आदमी कभी भी / रवीन्द्र प्रभात
आदमी कुत्ता हो सकता है
घोड़ा भी, गदहा भी
लेकिन बैल-
नही हो सकता आदमी
कभी भी।
इतिहासकारों ने लिखा इतिहास
कवियों ने कविता
और आलोचकों ने की
आलोचनाएँ खुलकर
विभिन्न मुद्दों पर
किन्तु-
किसी ने नही उठाई उँगली
कुत्ते की वफादारी पर
आदमी की सोचों
और घोडे की बहादुरी पर
कभी भी।
सबने कहा एक स्वर में
कि चिरंतन सत्य है यह
मृत्यु की तरह
कोई अतिश्योक्ति नहीं
और न-
शक की गुंजाइश ही ।
मगर छूट गया
एक किरदार
जिसकी नही की जा सकी चर्चा
इतिहास में/दर्शन में
कभी भी।
महरूम रखा गया
लोकोक्तियों / मुहावरों
और समालोचनाओं से आज तक
क्योंकि, ठेठ गंवई वह -
नही बैठ सका वातानुकूलित कक्ष में
कुत्ते की तरह
नही बँध सका जमींदारों/ राजाओं
महराजाओं के द्वार पर
घोडे की तरह
नही हिला सका दुम
व्यापारियों के आगे-पीछे गदहों की तरह
और आदमी की तरह
नही बन सका
आधा ग्रामीण / आधा शहरी
कभी भी
जबकि मौजूद आज भी
उसके भीतर
कुत्ते की वफादारी / घोडे और गदहे की मज़बूती
और आदमी का आत्मविश्वास
एक साथ ।
बैल-
एक दोस्त की मानिंद
देता साथ
उस किसान का
रहता हर-पल चौकस
जिसके साथ
हल चलाने / पिराई करने
तथा पकी फसल को
मंडी पहुँचाने तक ।
समय आने पर कुत्ता-
काट सकता अपने मालिक को
गिरा सकता अपनी पीठ से घोड़ा भी
मुकर सकता बोझ देखकर गदहा भी
और आदमी मोड़ सकता मुँह
भार ढोने के भय से अचानक
लेकिन बैल-
न काट सकता / न गिरा सकता / न मुकर सकता
और न भाग सकता
भार ढोने के भय से
कभी भी ।
बैल साम्प्रदायिक भी नही होता
आदमी की तरह
अपने स्वार्थ के लिए
गिराने का साहस भी नही जुटा पाता
मंदिर या मस्जिद को
नेतागीरी की मानसिकता से
कोसों दूर रहने वाला वह
विद्यमान है आज भी
गाँव के खेतों में / दालानों में
परिश्रम करते हुए निरंतर ।
बैल नही हो सकता
कुत्ता / घोडा / गदहा
या आदमी कभी भी
क्योंकि आलोचक
गाँव में नही
शहर में निवास करता है।