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बैल बियावै, गैया बाँझ / 48 / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय
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एक दिन सियार भटकी केॅ
कहीं दूर चल्लोॅ गेलै
वैठां देखलकै-बड़ोॅ-बड़ोॅ महल
आरो ओत्ते कूड़ा के बड़ोॅ-बड़ोॅ ढेर
चारो तरफ नाली के दुर्गन्ध
मल-मूत्र के
आबी रहलोॅ छेलै ओतनै दुर्गन्ध
तबेॅ वै जानलकै
कि ऊ कोय शहरोॅ मेॅ आवी गेलोॅ छै।
अनुवाद:
एक दिन सियार भटक कर
कहीं दूर चला गया
वहाँ देखा-बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं
उतनी ही कूड़ों के बड़े-बड़े ढेर
चारों तरफ नालियों की दुर्गंध
मल-मूत्र की
आ रही थी उतनी ही दुर्गन्ध
तब उसने समझा
वह किसी शहर में आ गया है।