बॉस और बीवी / हरे प्रकाश उपाध्याय
वह जो मेरा बॉस है
आख़िर रोज़ क्या लेकर लौटता होगा अपने घर
अपनी प्रिय बीवी के लिए
क्या वह अपनी बीवी से
उमगकर करता होगा प्रेम
घर लौटकर चूमता होगा बेतहाशा उसका चेहरा
उतार लेता होगा उन वक़्तों में
अपने चेहरे से बनावटी वह सख़्त नक़ाब
क्या उसकी दिल की घड़ी बदल लेती होगी
अपनी चाल
क्या वह दफ़्तरी समय की
चिक-चिक, झिक-झिक से अलग
किसी मधुर संगीत में बजने लगती होगी
मैं लौटता हूँ लिए
अपनी बीवी के लिए
अपने चेहरे पर गुस्सा, चिन्ता, धूल-पसीना
जिसे देखते ही वह
अपनी जीभ और होठों से
पोंछ देना चाहती है
मैं डपटता हूँ उसे
निकालता हूँ उसके हर काम में
बेवजह ग़लतियाँ
अपने बॉस की तरह बनाकर सख़्त चेहरा
उसकी ख़बर लेता हूँ
मेरी प्रिय पत्नी मुझसे डरने लगती है
उसका डरना भाँपकर
मुझे ख़ुद से ही डर लगने लगता है
मैं अपना चेहरा छुपाता हूँ
इधर-उधर हो जाता हूँ
परेशान हो जाता हूँ
मैं पाग़ल हो जाता हूँ ...