बोए गुलाब / गोपालप्रसाद व्यास
आँसू नीम चढ़े
खून पड़ा काला!
कानों में लाख जड़ी
जीभ पर छाला!
और तुम कहते हो, हंसो!
सड़ी हुई सभ्यता पर फब्तियां कसो!
कागज की व्यवस्था चर गई,
स्याही
सफेद को काला करते-करते
गुजर गई!
चश्मे ने
कर दिया देखना बंद,
और कलम!
अपनी मौत खुद मर गई
और तुम कहते हो लिखो?
समाज में बुद्धिजीवी तो दिखो!
छिलके-पर-छिलके
पर्त-पर-पर्त,
काई और कीचड़
गर्त-ही-गर्त
और तुम कहते हो उठो और चलो!
बहारों का मौसम है
मचलो, उछलो!
बोए गुलाब, उग आए कांटे!
सांपों और बिच्छुओं ने
दंश-डंक बांटे,
नागफनी हंसी,
तुलसी मुरझाई!
खंडित किनारों पर
लहरों की चोटें,
और तुम कहते हो नाचो,
युग की रामायण का
सुंदरकांड बांचो!
कुंभकरणी दोपहरी, मंदोदरी सांझ,
रात शूर्पणखा-सी बेहया, बांझ,
मेघनाद छाया है
दसों दिशा क्रुद्ध!
चाह रहीं बीस भुजा
तापस से युद्ध,
और तुम कहते हो
सृजन को संवारो!
कंटकित करीलों की
आरती उतारो!
प्रतिभा के पंखों पर
सुविधा के पत्थर!
कमलों पर जा बैठे नाली के मच्छर!
गमलों में खिलते हैं
कागज के फूल!
चप्पल पर पालिश है,
टोपी पर धूल!
और तुम कहते हो आंसू मत बोओ!
सुमनों को छेद-छेद माला पिरोओ!
दफ्तर में खटमल की वंश-बेल फैली
कुर्सी पर बैठ गई चुपके से थैली!
बोतल से बहती है गंगा की धारा,
मंझधार सूख गई, डूबता किनारा!
द्रौपदी को जुए में धर्मराज हारा!
अर्जुन से गांडीव कर गया किनारा!
और तुम कहते हो
छोड़ दो निराशा?
होने दो होता है
जो भी तमाशा?