बोझा / अतुल कुमार मित्तल
मैंने कितना बोझा लेकर सफ़र तय किया है साँसों का
पहरों बीती रात मगर कर्जा बाकी जग की आसों का
जग को है मुझसे प्रत्याशा
उसके बोझ में हाथ बटाऊँ
मेरी इच्छा बन के पखेरु
नील गगन में मैं उड़ जाऊं
तुमको भी तो धोया तोड़ा
होगा उम्रों की लहरों ने
मैंने कितना मूल्य चुकाया बचपन की छोटी बातों का
तुमने जाने अनजाने में
मांग भरी है उस विधवा की
जिसके जीवन में, पतझड़ में
और वसन्त में भेद नहीं है
पर अनुबन्धित नहीं सखे तुम
उम्र तुम्हारी अपनी है
क्या विश्वास भला इस पागल ऋतु की गुप-चुप-सी घातों का
जब-जब रातें हुई स्याह और
दिन को सूरज ने झुलसाया
तब-तब अपने मन को मैंने
ऐसा कह-कहकर समझाया
तू क्या पगले! तेरी क्या औकात
यहाँ पर यह धरती है
गुजर चुका काफ़िला यहाँ से ईसा, मीरा, सुकरातों का
जीना है तो जी ले अपने सिर्फ
एक उस पल में ही तू
जिसमें तू यह भूल गया था
यह ‘मैं’ हूँ या तू है
जिन रातों में दीप बना तू
जल मगर औरों की लौ में
एक आयु भी मूल्य नहीं है जीवन में ऐसी रातों का