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बोझ सदी के ढोए / मधु शुक्ला
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					विश्वासों की दरकी  गागर,
अब किस  घाट  डुबोए ।
सोच रही  धनिया  किसके 
काँधे  सिर  धरकर रोए ।
फुर्र हुए आशा  के  पंछी,
मौन हुईं सब डालें ।
लौट रहीं अनसुनी पुकारें,
पत्थर हुए  शिवाले ।
तार -तार तन की चादर,
क्या धोए और निचोए ।
कभी बाढ़ से जूझे सपने,
और कभी सूखे से ।
लिये खरोंचें मौसम की,
दिन हुए बहुत रूखे से ।
बंजर  रिश्तों  में आख़िर,
कितने  समझौते  बोए ।
आगे कुआँ  दुखों  का,
पीछे चिन्ताओं की खाई ।
हुई न घर में शुभ - शकुनों की,
बरसों से पहुँनाई ।
दो पल के जीवन की खातिर
बोझ सदी के ढोए ।
	
	