बोधकथा, एक कलाकार की / आन्द्रेय वाज़्नेसेंस्की
(वि. शक्लोव्स्की के लिए)
निर्धन और स्वाभिमानी एक कलाकार को
दर्शन दिये एक तारे ने।
विचार आया कलाकार के मन में
क्यों न बनाई जाय तारे की ऐसी तस्वीर
जो बिना कील ठोंके टिक जाये दीवार पर।
बदलता गया कलाकार मकान के बाद मकान,
मामूली रोटी और पानी-यही रही उसकी खुराक,
तस्वीर को भला-बुरा कहता जीता गया योगी की तरह
पर तारा था कि गिर जाता था जमीन पर हर बार।
तस्वीर के रंगों ने
घारण किया चुम्बकीय मायावी रूप
चुँधिया जाती थीं आँखें दर्शकों की उसके सामने
पर दीवार थी कि सुनती ही नहीं थी
बिना कील के कोई पुकार।
प्रार्थना करने लगा कंक्रीट की दीवार से कलाकार
दे दे मुझे तू अपने समस्त दुख,
मैं तैयार हूँ अगर खून भी टपकने लगे मेरी हथेली से
तुझ पर कील से हुए घावों के बदले।
मर गया कला के हाथों यातनाएँ सहता कलाकार
दाँत निपोरने लगा वह हृदयविहीन तारा,
अब बिना लटकाये भी लटकी ही रहती है
कील-विहीन तारे की तस्वीर।