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बोध-संबोध / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो
Kavita Kosh से
कत्तेॅ नी काँटें छै बाटोॅ में
एक जों गड़िये गेलै तेॅ की?
उँच-निचें रस्ता छै सौंसे टा जिनगी के, टेढ़ोॅ-मेढ़ोॅ चाल;
रातकोॅ अन्हारोॅ में ठाम्हैं ठाम बुनने छै मकरा ने जाल;
धरल्हेॅ सम्हारी केॅ डेग तों ओकर्हौ पर
एक गोड़ गढ़ा में पड़िये गेलै तेॅ की?
ओकरे छै मदौं टी छोटोॅ-मोटोॅ बाधा सें जें-जें ने मानै छै हार
वही ने भरै छै शहदोॅ सें घैलोॅ सही मदमाछी के आर
मंजिल तक जाबै में, मनबिच्छा पाबै में,
बाघ सें आँख जों लड़िये गेलै तेॅ की?
काँटा के डरोॅ सें जें-जें भी राखै छै, साधी के अगुलका डेग
ओकरा पर केकरो की रहतै भरोसोॅ, जेकरा की आपने नी थेग!
कतेॅ नी ठेढ़ोॅ छै लौलिन जबैया केॅ
एकोॅ केॅ छोड़ो जों बढ़िये गेलै तेॅ की?