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बोध की किरण / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
भूलें अँकुराईं जब
अनछुई उदासी में
अपने से हार गए हम ।
टहनी-सा दर्प झुका
सूनेपन में
मन दोषी ठहरा
रंग उड़ा अपराधों का
मन्थन में
बरसों का गहरा
कुण्ठा ने तोड़ दिया दम ।
आत्म-शोध लघुता के
बोध की किरण
दिपा गई घड़ियाँ
औचक ही टूट गईं
गत दिवसों की
उमस भरी कड़ियाँ
अब न रहे भारी-भरकम
अपने से हार गए हम ।