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बोध की ठिठकन- 12 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

तुम्हें अराध लूँ
तो भोर की किरनें
शायद मेरे क्षितिज पर भी
झांकने लगें.

मेरा संवेदनशील क्षितिज
अंधड़ तूफानों के
चरण-निक्षेप सें
घबराता नहीं
उसने अपनी खिड़की
पंखुरियों में जगती उषा
संपुटों में ढलती संध्या
के लिए ही नहीं
जलती दोपहरी के
उत्तप्त-स्पर्श के लिए भी
खोल रखी है.

दूर धरती से
जहाँ आकाश मिलता है
घहराते बादलों से झाँकती
सूरज की तरुणकाई
उसने देखी है.

उसके दामन में
अनेक कड़वे मीठे प्रत्यक्ष
उभरे और गायब हुए हैं.

उसके पोरों को सिहराती
अहसासों की दस्तकों ने
उसकी आँखों के सामने
एक जाला सा बुन दिया है
मगर तुम्हारी लौ में
उनकी गाँठें दिखती हैं.

इन गाँठों पर आँखें टिकाए
जलते बुझते अनुबोधों को
मैं अनुभव की आँच में
पकाने लगा हूँ.

अपने रंध्रों के द्वार
मैंने खोल दिए हैं.

मुझे उम्मीद है
बादल छँटते ही भोर की किरनें
मेरे क्षितिज पर भी
जरूर छिटकेंगीं.