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बोध की ठिठकन- 6 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

लो तुम्हारे पहलू में
मैंने खुद को डाल दिया.


तुम्हारे बोध की सिहरन ही
मेरे हाथ लगा वह सूत्र है
जो मेरी आस्था को आयाम देता है.

इस आस्था के सहारे
अपने समूचे नर्क के साथ
मैं तुम्हारे आमंत्रण को
समर्पित हूँ.

लो मेरे तारों पर
उँगलियाँ फेरो
स्वरों के नियंत्रण हेतु
खूँटियाँकसो
तुम्हारे व्यापार में
मेरा कोई दखल नहीं होगा.

मेरे समर्पण में
हमारा पार्थक्य आभासित है
तुम्हारी मर्जी के खेल में
मैं अपना एक आयाम खोलूँगा.

तुम्हारे स्पंदन के आघातों से
मेरे तारों में जो ध्वनि जगेगी
उन्हें अपनी काया के अणु अणु में
प्रतिसंवेदित होने दूँगा
और सह उत्पादित अंतर्संवेदनों को
अपनी प्रतीति पर छोड़ूँगा
एक प्रयोग की तरह.

मूझे अनुभव की गहराई में
आविर्भावों की डोरी पकड़ कर
अपने आत्यंचिक बोध के क्वाँरेपन में
उतरना जो है.