बोध की ठिठकन- 9 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

मेरा हरएक पल
तुम्हारी घाटी के स्पंदन
महसूसने लगा है.

कभी कदा
घनीभूत होता यह अहसास
मेरे रचना के क्षणों को
बुनता है
मैं रचनाशील हो उठता हूँ.

मगर
मेरा भीड़ भरा मन
इन स्पंदनों को
सोखने लगता है
मेरी रचना के पल
छूट चलते हैं.

बहुत थोड़े से अवसर होते हैं
जब मेरा एकांत
मेरा अपना होता है.

मेरे सन्नाटे में
मेरी संवेदना के द्वार
खुलते हैं
मैं अपने साथ होता हूँ.
बस यह सन्वाटा भर ही
मेरा अपना था.

तुम्हारे स्पंदन के खरोचों से
सुगबुगाता मेरा होना
सन्नाटे की उखड़ती साँसों के साथ
मन के विस्तार में
धुँधलाता परिचय
छोड़ रहा हूँ.

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