भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बोध / शब्द प्रकाश / धरनीदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रथमहि वरनाँ एकै कर्त्ता। आदि अंत मधि हर्त्ता भर्त्ता।
तव बन्दाँ सत गुरु के पाँव। जाकी दया अभयपद पाँव॥1॥

श्रवनन सुनी संतकी वानी। अब पुनि वेद पुरान कहानी॥
संसकार सत संगति पाई। अब यह जग मिथ्या ठहराई॥2॥

जित देखा अस्थिर नहि कोई। सो अस्थिर जाते सब होई।
शंसय करि संसार भुलाना। सो सब हृदय कियो अनुमाना॥3॥

जब सपने सुख-सम्पति पावै। जागे काज कछू नहि आवै।
मर्कट मुट्ठी छोड़ न देई। बिनु बंधन तन बंधन लेई॥4॥

नाभि सुगंध नासिका वासा। चरचत फिरै चहूँ दिशि घासा॥
दूजा देखो दर्पन मांहीँ। छवि जनु एक वहुरि कछु नाँही॥5॥

सेमर फूल सुआ जिम भूला। मरमत अंध अधोमुख झूला॥
जल-मध्ये प्रतिमा दिखरावै। खोजत बिनशे हाथ न आवै॥6॥

अपनी देह घुमावत वारा। घूमत कहे सकल संसारा॥
जानत जँवर सरप अँधारे। नहिँ जँवर सो दीपक वारे॥7॥

तृण को मानुष खेत मँझारा। मृग मतिमंद चरै नहि चारा॥
फटिक शिला अरुझे मदवंता। अपनी कुवधि गँवावै दंता॥8॥

देखत खाल गऊ गर्वानी। हेत करै अपनो सुत जानी॥
अस्थिर आप नावरी माँही। जानै और चले सब जाँही॥9॥

भूसत श्वान काँच के गेहा। मन अभिमान विसारे देहा॥
मृग-तृष्णा जल धोखे धावै। थाकि परे पाछे पछतावै॥10॥

मानुष जन्म जुआमँे हारे। हरि-भक्ती नहि हृदय विचारे॥
औरो अंत जहाँ लगि देखा। सत्य आत्मा राम विशेषा॥11॥

एकै बीज वृक्ष होइ आया। खोजत काहु अंत ना पाया॥
देखो निरखि परखि सब कोई। सब फल माँह बीज एक होई॥12॥

पुनइनि ज्यों जल-मध्य अकासा। एैकै ब्रह्म सकल घट वासा॥
मनि गन माल मध्य जिमि डोरा। सागर एक अनेक हिलोरा॥13॥

एक भँवर सब फूल मँझारा। एक दीप सब घर उँजियारा॥
तत्त्व निरंजन सबके संगा। पशु पंछी नर कीट पतंगा॥14॥

देखो आपन कया विलोई। वाद विवाद करे मत कोई॥
काम क्रोध मदलोभ निवारे। समता गहि ममता के मारे॥15॥

आनको दोष कबहुँ ना घरई। जानत जीव-घात ना करई॥
निरपंछी साँचै अरथावै। निर्दय हवै धन मृषा न खावै॥16॥

सन्तत धर्म अनाश्रित करई। सो मुनि प्रानी भवसागर तरई॥
दुख सुख एकै भाव जनावै। अमि-अंतर विश्वास बढ़ावै॥17॥

अस्तुति निंदा दुवो समाना। सुर नर मुनि गन ताहि बखाना॥
तेही समान तुलै नहि कोई। जीवन मुक्त कहावै सोई॥18॥

मन प्रमोद जाही मन भावै। त्रिविध ताप तन पाप नसावै॥
चित्रगुप्त धर्माधी राजा। काल-दूत यम आरति साजा॥19॥

अपनो आपा आप मिटाई। धरनीदास तासु बलि जाई॥
ऐसी दशा विराजी जाकी। धरनी तँह न रही कछु बाकी॥20॥