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बोध / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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उजाले-अँधेरे में जाता हूँ-माथे के भीतर
स्वप्न नहीं, कोई एक बोध काम करता है,
स्वप्न नहीं-शान्ति नहीं-प्रेम नहीं,
हृदय में एक बोध जन्म लेता है,
मैं उसे हटा नहीं पाता
वह मेरे हाथ को रखता अपने हाथ में
सब कुछ तुच्छ पशु लगता है-
समस्त चिन्ता-प्रार्थना का पूरा समय
शून्य लगता है
शून्य लगता है

कौन चल पाता है सहज आदमी की तरह?
कौन रुक पाया है इस उजाले अँधेरे में
सहज आदमी की तरह, उसके जैसी भाषा, बात
कौन कर पाता है, कोई निश्चय
कौन जान पाता है देह का स्वाद
उसके जैसा चाहता ही कौन है जानना
प्राणों का आह्लाद।
उसकी तरह कौन पायेगा
सब जैसे बीज बोकर तत्काल फूल जाना चाहते हैं।

पर उसमें ऐसा स्वाद कहाँ
देह में माटी की गन्ध लीपे
देह में पानी की गन्ध लीपे
उत्साह से रोशनी की ओर देखकर
किसान का कलेजा लेकर
और कौन रहेगा जगा पृथ्वी पर?
स्वप्न नहीं-शान्ति नहीं-कोई एक बोध काम करता है
दिमाग़ में।

इधर-उधर राह चलते करना चाहता हूँ, उसकी उपेक्षा
मारकर कपाल-क्रिया कर देना चाहता हूँ
पर जीवन माथे की तरह वह घूमता रहता है
तब भी वह दिमाग़ में हर घड़ी,
तब भी आँख में वह हर घड़ी
तब भी वह दिल में हर घड़ी
चलता हूँ तो वह साथ-साथ हो लेता है।

मैं रुकता हूँ-
वह भी रुक लेता है,
सबके बीच बैठकर भी
मैं अपने ही मुद्रा दोष के कारण
अकेला हो जाता हूँ सबसे विलग?
मेरी आँख में केवल धुंध?
मेरे रास्ते में केवल बाधा?

पृथ्वी पर जन्मे हैं जो सन्तान के रूप में-
वे और सन्तानों को जन्म देते-देते
जिनके बीत गये हैं वक़्त
या सन्तान पैदा करनी पड़ती ही है जिनको
या पृथ्वी के खेत में बीज होते आ रहे हैं जो
पैदा करेंगे...पैदा करेंगे करते जाते हैं जो
क्या उनकी ही तरह दिल और दिमाग़
मेरा भी है क्या?
फिर क्यों हूँ इतना एकाकी?
फिर यह कैसा एकाकीपन
क्या मैंने जोता नहीं खेत हाथ में लेकर हल
बाल्टी उठाये खींचा नहीं जल?
हँसुआ लेकर गया नहीं खेत?
मछुआरों की तरह घूमता-फिरा हूँ कितने नदी घाट
पोखर की जलकुम्भी, काई, घोंघे की गन्ध से
महकी नहीं मेरी देह?
ये सारे स्वाद,
इन्हें पाया है मैंने भी हवा की तरह अबाध
बहा है जीवन,
नक्षत्र के नीचे लेटकर, सुलाकर मन।

एक दिन,
ये इच्छाएँ
जानी हैं एक दिन-अबोध-अगाध,
चला गया हूँ ये सब छोड़-छाड़,
देखा है स्त्री की अवहेलना कर
देखा है स्त्री को घृणा कर,
वह मेरे क़रीब आकर प्यार की,
मेरी उपेक्षा कर चली गई,
बार-बार बलाने पर भी
घृणा से चली गई,
फिर भी की साधना तो प्यार की ही की
उसकी उपेक्षा की भाषा की
उसकी घृणा के आक्रोश की
अवहेलना ही की
यह कहकर कि ये सब ग्रह हैं, ग्रह-दोष हैं
मेरे प्यार के रास्ते में उसने दी बार-बार बाधा
इसे मैं गया भूल,
फिर भी वह प्यार-रहा कीचड़ और धूल।

अब दिमाग़ के अन्दर
स्वप्न नहीं-प्रेम नहीं-कोई एक बोध काम करता है।
सब देवताओं को छोड़कर
लौट आता हूँ अपने प्राणों के पास,
अपने हृदय से मैं कहता हूँ-
क्यों वह पानी की तरह घुमड़-घुमड़ कर
अकेला अपने आप से ही बातें करता है?
क्या तुम्हें नहीं कोई अवसाद?
रहना आता नहीं शान्ति के साथ?
कभी सोयेगा नहीं, चुप सो रहने का स्वाद कभी पायेगा या नहीं
नहीं पायेगा आह्लाद?
मनुष्य का मुख देखकर
मानुषी का मुख देखकर।
शिशु का मुख देख कर भी?

यह बोध-केवल यही स्वाद
पाया वह अगाध-अगाध।
संसार छोड़कर आकाश में नक्षत्र-पथ
नहीं जाने के वास्ते खाई थी उसने शपथ-
देखेगा वह मनुष्य का मुख?
देखेगा वह मानुषी का मुख?
देखेगा वह शिशु का मुख?
उसके आँख की काली शिराओं में ताप
उनके कान की बधिरता, मांस के लोथड़े-सी उसकी कूबड़(यहाँ कवि के अपाहिज पुत्र की ओर संकेत है)
सड़े भतुए के छिलके जैसी शक्ल, सड़े खीरे-सा
जो कुछ भी मेरे हृदय को मिला
वह सब देखूँगा...