भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बोर हो रहा हूँ मैं घर में / सूर्यकुमार पांडेय
Kavita Kosh से
बोर हो रहा हूँ मैं घर में,
बोर हो रहा हूँ मैं घर में!
पापा चले गए हैं दफ़्तर,
मम्मी गयीं सहेली के घर।
दीदी-भैया स्कूल गये हैं,
बोर हो रहा हूँ मैं घर में।
गपशप है दादा की ख़ूबी,
दादी जी पूजा में डूबीं।
सब ही मुझको भूल गये हैं,
बोर हो रहा हूँ मैं घर में।
हे भगवान, करो कुछ ऐसा,
मुझे बना दो अंकल जैसा।
मैं भी घूमूँ नये शहर में,
बोर हो रहा हूँ मैं घर में।