बोलता मन / सौरभ
बोलता मन
बोलता जा रहा निरंतर 
जब से सीख गया है बोलना
जब से उग आई लम्बी ज़ुबात
बोलता जा रहा है मन
किसी नेता की तरह
थोड़ा सच थोड़ा झूठ 
खुद को तसल्ली दे रहा
बोल रहा
	थोड़ा अर्थवान ज़्यादा अर्थहीन
	बोलता जा रहा
कुछ होने कुछ न होने की चाह में
कभी गुज़रे हुये पलों की याद में 
	बोलता जा रहा 
कुछ होने कुछ न होने की चाह में 
इस पल को बदलने की चाह में
कभी गुज़रे हुए पलों की याद में
	बोलता जा रहा
कभी दे रहा भाषण 
कभी प्रवचन झाड़ रहा
मौन होने की चाह में 
बोलता जा रहा 
कभी खुशी में कभी ग़म में 
	बोलता जा रहा
कभी डर के दुबक फुसफुसा रहा
कभी शेर-सा दहाड़ रहा 
सुनने वालों की फिक्र छोड़ 
अकेले ही बोलता जा रहा
इसे यकीन है कि कोई है
जो सुन रहा है सब
जो है इससे अलग
जिसे यह सुनाता जा रहा।
	
	