भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बोलते हैं पहाड़ / रश्मि भारद्वाज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहाड़ों‬ से लौटते हुए
हम बाँध लाए सिंगौरी, चॉकलेट और बाल मिठाई,
काफल, आड़ू और आलू बुखारे की ख़ुशबू से
भर गया घर का हरेक कोना
कैमरों में क़ैद कर लिए गए असंख्य चित्र
चीड़, देवदार, नदियाँ, झरने
और हम
लेकिन बहुत-कुछ है
जो छूट गया

साथ नहीं ला पाए हम वह हवा
जो छू जाती थी मन,
कहाँ साथ आई वह सोंधी गन्ध
बारिशों में धुले पहाड़ों की, मिट्टी की, पेड़ों की,
आँखों से बहती
वह मीठी, सहज मुस्कानें
साथ बहा ले जाती थी जो मन की हर गिरह भी,
यायावर आँखों ने बहुत की कोशिश
नहीं बटोर पाईं फिर भी
मेहनतकश चेहरों की वो बेतरतीब रेखाएँ
हुनर हर हाल में जिए जाने का
पथरीले, सँकरे रास्तों से गुजरकर भी
खोजती रहती हैं जो मंज़िलों का पता

क़ैद होकर भी तस्वीरों में
छूट गईं वो
घास काटती, लकड़ियाँ बीनती
सीढ़ीदार खेतों में 'मै'<ref>मै - एक हलनुमा उपकरण, जिसका इस्तेमाल पहाड़ पर किसान खर-पतवार साफ़ करने के लिए करते हैं।</ref> खींचती औरतें
सड़क किनारे काफल बेचते
काफल से ही लाल गालों वाले बच्चे
और उनकी पहाड़ी झरनों-सी किलकती हँसी
मीलों की दूरी को पलों में पार करते वो सधे कदम
और हमेशा कुछ देने को उठे हुए मजबूत हाथ

लौटते हुए
हौले से कानों में गुनगुना गए पहाड़
हो सके तो सीख लो मुझसे
आकाश को छू कर भी
टिकाए रखना पैर ज़मीन पर
बचाए रखना मन की हरीतिमा
संभालना अपनी गोद में धड़कते जीवन
हो सके तो आँखों से आगे जाकर
सहेजना मन तक मुझे

बोलते हैं पहाड़
गर हम सीख सकें उन्हें सुन सकना

शब्दार्थ
<references/>