मेरे पड़ोसी, हमदम और भूतपूर्व मार्क्सवादी ने
जिसके साथ मैं बड़ा हुआ,
जो पहले खेतिहर, मज़दूर, किसान को पूजता था
और बाद को मातृभूमि-पूजक राजनीतिज्ञ हो गया
और हमारी नस्ल और मातृभाषा पर मण्डराते ख़तरे की गहन चिन्ता करने लगा,
अभी पिछले दिनों मुझसे कहा,
"कविता करते हो, ठीक है, पर
अपनी मातृभूमि के लिए भी कुछ करने पर विचार करो।"
मेरे उम्ररसीदा कवि-भाई के मुँह से
यह बात निकल पड़ी,
"तुमने ख़ुद मेरी कविताओं का अनुवाद किया था
वे अब तक तुम्हारी चारपाई के नीचे उपेक्षित पड़ी हैं।
कोशिश करो कि वे कहीं छप जाएँ ।
क्या पता एक दिन मैं यों हीं चल बसूँ !"
अरसे से पस्त और दुखी मेरी बीवी भी
बेटी की बढ़ती हुई बेरुख़ी पर कहती हैं,
"औरों का तो पता नहीं लेकिन क्या करूँ
बेटी तो आख़िर मेरी है, उसका ख़याल कैसे न रखूँ ।"
अपने कुकर्मों के बोझ से दबा हुआ
जानता हूँ कुछ बोलने का अधिकार मैं कभी का खो चुका पर
मेरा चींटियों से और चिड़ियों से बोलना जारी है।
अभी उस दिन एक गिरते हुए पेड़ ने
आख़िरी सांसें लेते हुए मुझे
अपनी प्राणांतक पीड़ा बताई,
और मैंनै उसका मर्म जान लिया।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : असद ज़ैदी
लीजिए, अब यही कविता अँग्रेज़ी में पढ़िए
Robin S Ngangom