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बोला संत कबीर / श्यामनन्दन किशोर

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रच रहा हूँ छन्द मैं आग्नेय
निज रुधिर-मसि से, मृणाली से।
काव्य का यह विवश अग्रासन
पा रहा हूँ का-व्याली से।

कर रहा संसृति-उदधि में क्रूर,
आत्मा का मैं विकल मन्थन।
पी हलाहल कवि रहा मेरा,
हो रहा जग पर अमृत-स्यन्दन।

बाँटते हैं मुक्ति, देते दृष्टि
लोग कहते, वेद और पुराण;
हैं लिखे अनमोल पन्नों पर
लोग कहते, ज्ञान औ’ विज्ञान।

सुना करता, देववाणी में कहीं
है अमर साहित्य का सर्वस्व;
मानकर भगवान जिसके सृजक को
पूजता है आरहा यह विश्व।

बुद्धि छोटी पर बड़ी यह बात-
हृदय को किस भाँति समझाऊँ?
आदमी हूँ, देवता की पंक्ति में,
मन न करता, बैठ रँग जाऊँ।

क्षुधा-कातर मनुजता को हाय,
लाभ है क्या कल्पतरु से भला!
है न अनुभव से बड़ी अभिव्यक्ति,
है सरलता से न ऊँची कला!

संतुलन कर मैं नयन का श्रवण से,
देखता आकाश, धरती अतल!
बोलता जब रह न सकता मौन,
ले महज़ अनुभूतियों का बल!

ढूँढ़ता अपने हृदय के बीच
देवता को मैं गगन के रहा।
आत्मा के यज्ञ में निर्धूम,
चढ़ा समिधा क्षणिक तन का रहा।

मौलवी की श्वेत दाढ़ी में, अरे,
छिप न पाता है हृदय काला।
पंडितों के मलिन मन की गाँठ को
क्या करेगी काठ की माला!

चल रहे हैं चाल बगुले हंस की,
धर्म साधन बन गया व्यभिचार का!
प्राण के हैं तत्त्व की चिन्ता नहीं,
मोह कितना बढ़ गया आकार का!

मन्दिरों औ’ मस्जिदों की आग में,
भून नर को नर चबाता है!
भाइयों के खून से रँग हाथ निज,
पत्थरों को सिर नवाता है।

कर्म के उत्कर्ष का है मोल क्या
जाति का आधार ही जब मान्य है!
धन्य देश कि जातिवालों से अधिक
जातियों का ही यहाँ प्राधान्य है!

मुग्ध पंकज के न ये गुण-रूप पर,
मलिन-पंकिल मूल पर ही ध्यान है;
देह की मिट्टी सनी जिस नीर से-
प्राण-श्री का वही एक प्रमाण है।

जानकर पौरुष दिया गुरु का,
तोड़ता हूँ धर्म की कारा!
योग के हिमवान से लो भक्ति की,
मैं बहाता हूँ प्रखर धारा।

नष्ट पीहर हो भले ही जाय, पर
रहेगा पीघर सुघर मेरा।
मैं मिटूँगा, पर रहेगा विश्व में-
गूँजता नित अमर स्वर मेरा।

(15.6.63)