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बोलो कवि जी ? / शैलेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
माना हमने स्वर्णिम अतीत था
और समय यह बहुत बुरा
पर अतीत के ढ़ोल बजाकर
क्या कर लोगे तान सुनाकर
बोलो कवि जी?
इंच-इंच अनय को नापा
करते रहे समय का स्यापा
गला फाड़कर रहे चीखते
खोकर खुद अपना ही आपा
आखिर कबतक परसोगे तुम
'स्यापा'को निज गीत बताकर
बोलो कवि जी?
मूल्यों का हो रहा क्षरण है
गली-गली में चीरहरण है
श्वासों में संत्रास घुल रहा
जीते जी हो रहा मरण है
इस आँधी को रोक सकोगे
महज शब्द के बाण चलाकर
बोलो कवि जी ?
तथाकथित 'वादों' को ढ़ोकर
'इनके' या 'उनके' बस होकर
कबतक खुद को बहलाओगे
सपनों के अमरित फल बोकर
बोलो कवि जी?