बोलो जुल्फिया रे / आत्मा रंजन
एक दार्शनिक ने कहा-
किसी को लम्बी उम्र की दुआ देनी हो 
तो कहना चाहिए 
तेरी उम्र लोकगीत जितनी हो! 
लेकिन अपवाद ही हुए तुम 
तुम्हारी कहानी से अपरिचित था शायद दार्शनिक 
मेरे भीतर क्यों गूँज रही है 
रह-रह कर तुम्हारी कसकती लम्बी तान 
लहलहाते मक्कई खेत के छोर पर खड़ा हूँ मैं 
सामने पसरी है खेतों की लम्बी कतार 
कहाँ है वह गाँव भर से जुटे बुआरों का-
'जितने सरग में तारे उतने मेरे मामा के बुआरे' 
जैसी कहावतों को मूर्त करते हुए 
कहाँ है वह बाजों-गाज़ों के साथ चलती गुड़ाई का शोर 
यहीं गूंजते थे तुम्हारे बोल-
'बोलो जुल्फिया रे' 
युवक-युवतियों के टोलों के बीच 
यहीं जमते थे तुम्हारी लय में ढले सवाल-जवाब 
यहीं तो खुलते थे उनके भर आए दिलडू के द्वार 
तुम में ही उमड़ती थीं सुच्चे प्यार की परतें 
बूढ़ाती स्मृतियों में कहीं ठहर गया है दृश्य 
किसी का काम न छूटने पाए पीछे
बारी-बारी सबके खेतों में उतरता सारा गाँव 
हल्ले-गुल्ले से ही कांप उठते खरपतवार 
और दो-तीन पालियों में ही निपट जाता 
बड़े से बड़ा खेत 
कई कामचोर तो ऐसे ही तर जाते 
जुल्फिए की दाद देते-देते 
खिलनियों की नोक से निकलता 
धरती की परतों में छिपा कांपता संगीत 
मिटटी की कठोरता में उर्वरता और 
जड़ता में जीवन फूंकते 
कठोर जिस्म के भीतर से उमड़ते 
झरने का नाम है जुल्फिया 
चू रहे पसीने का खरापन लिए 
कहीं रूह से टपकता प्रेमराग 
ऐसे अनन्य लोकगीत तुम 
कैसे बन गए एक लोकगीत की त्रासदी 
बोलो जुल्फिया रे! 
फ़िल्मी गानों पर मर मिटते 
भविष्य तलाशने में जूझ रहे युवक-युवतियाँ 
देह लपकने को आतुर संगीत संयोजक 
कहीं नहीं सुनाई देती 
जुल्फिए की हूकती-गूंजती टेर
खेतों में अपने-अपने जूझ रहे सब ख़ामोश 
पडोसी को नीचा दिखाते 
खींच तान में लीन 
जीवन की आपाधापी में जाने कहाँ खो गया 
संगीत के उत्सव का संगीत 
कैसे और किसने किया 
श्रम के गौरव को अपदस्थ 
क्यों और कैसे हुए पराजित तुम ख़ामोश 
अपराजेय सामूहिक श्रम की 
ओ सरल सुरीली तान 
कुछ तो बोलो जुल्फिया रे! 
(हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में प्रचलित कृषि कार्यों को मिल-जुल कर करने की 'बुआरा प्रथा' में सामूहिक गुड़ाई लोक वाद्यों की सुरताल के साथ संपन्न होती थी! जुल्फिया एक लोक गायन शैली है इसे सामूहिक गुड़ाई के अवसर पर गाया जाता था! बुआरा प्रथा के साथ ही यह गायन भी अब लुप्तप्राय: है!)
	
	