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बौआ लोकनिसदू गाही दोहा / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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आम होइछ अम्मत,
पुनि सैह आम होइछ मधुर,
भेद ई -
अवस्थाक धर्मथिकै, बूझि लिअऽ।
रहै छै अवस्था जा अपरिपक्व
साधारण लोको सब
आमजकाँ सक्कत
आ अम्मत रहैत अछि,
जहिना वैशाख तथा जेठक प्रचण्ड रौद
तपबैछै, पकबैछै, गुल-गुल बनबैत छै।
अनायास हरियरका खुँइचाक भीतरसँ
लाली बिहुँसैत
आबि ऊपर निखरैत छै।
तिक्ख-चोख आमिल-अँचार
बनय कँचकेसँ,
किन्तु पुनि अमौट मधुर पकलेसँ होइत छै।
जीवनकेरताप
विघ्न-बाधाक अन्हड़सँ जाधरि नहि भेट होइछ
एहिना इतराइत रहब,
आखिरतँ बोए छी, बौआइत बौआइत
आइ ने तँ काल्हि फेर बाटे पर भेट होयत।
बौआकेँ अपनो जँ बौआ भऽ जाइत छनि
बिनु ककरो कहने पथ पुरने धऽलैत छथि।