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बौने-बौने घर / शैलेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
ऊँची-ऊँची मीनारों में
बौने-बौने घर
तन तो छत के नीचे रहता
मन भटके दर-दर
बाहर से दिखते हैं जैसे
कोई राजमहल
पर भीतर के सन्नाटे से
जी है रहा दहल
घर में रहते हुए सैकड़ों
रहते हैं बे-घर
वैसे तो सारी सुविधाएँ
हैं मीनारों में
लेकिन तंगी रहती है
घर-घर दीवारों में
जीवन सहज नहीं फिर भी कुछ
उड़ते हैं बे-पर
'ऊँच निवास नीच करतूती'
दिखती है अक्सर
गुरबत रह-रह जिसके आगे
पकड़े अपना सिर
मानवता पर हावी पशुता -
के चुभते नश्तर