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बौराने के ढेर बहाने / अवनीश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
धूप लगाकर नेह-महावर
उतर गई सागर के जल में,
फगुनाई फिर याद तुम्हारी
आकर बैठ गई सिरहाने
फागुन-रंग,बसन्त-गुलाबी
पनघट,नदी,चाँदनी रातें,
भीग रहा मेरा मन हर पल
चाह रहा करना कुछ बातें
पोर-पोर मथने को आतुर
हरसिंगार की खुशबू वाली
हौले से आकर पुरवाई
फिर से लगी मुझे बहकाने
उठी गुदगुदी मन में तन में
मोरपंखिया नई छुवन से,
परकोटे की आड़ लिए जो
नेह-देह की गझिन तपन से,
सूरज की अनब्याही बेटी
आभा के झूले पर चढ़कर
कुमकुम रोली को मुट्ठी में
आकर फिर से लगी उठाने
अधरों पर पलाश की रंगत
पिए वारुणी दशों दिशाएँ,
आगन्तुक वासन्ती ऋतु का
आओ अवगुण्ठन सरकाएँ
किसिम-किसिम की मंजरियों पर
कनखी-कनखी दिन बीते हैं,
साँसें फिर से खोज रही हैं
बौराने के ढेर बहाने