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ब्रज के सिवाय होयगी अपनी बसर कहाँ / नवीन सी. चतुर्वेदी

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ब्रज के सिवाय होयगी अपनी बसर कहाँ।
ब्रज-भूमि कों बिसार कें जामें किधर? कहाँ?

कनुआ सों दिल लगाय कें हम धन्य है गये।
और काहू की पिरीत में ऐसौ असर कहाँ॥

सूधे-सनेह की जो डगर ब्रज में है हजूर।
दुनिया-जहान में कहूँ ऐसी डगर कहाँ॥

तन के लिएँ तौ ठौर घनी हैं सबन के पास।
मनुआ मगर बसाउगे मन के नगर कहाँ॥

उपदेस ज्ञान-ध्यान रखौ आप ही 'नवीन'।
जिन के खजाने लुट गये विन कों सबर कहाँ॥